मृत्युंजय सावरकर जी का जीवन चरित्र


महामना लोकोत्तरदृष्टा विनायक दामोदर सावरकर जी का जीवन चरित्र


महान वीर सावरकर के बारे में –
वीर सावरकर के प्रथम कीर्तिमान :
1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे
जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी
विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा
का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु
देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? क्या
किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में
शोक सभा हुई है?



2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड
सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने
वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर
कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ |
3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7
अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी |
4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे
जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब
बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको
शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की
थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के
अपने पत्र ‘इन्डियन ओपीनियन’ में गाँधी ने निंदा
की थी |
5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस
प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर
चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में
विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया |
6. सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में
विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन
कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये
जुरमाना किया, इसके विरोध में हड़ताल हुई, स्वयं
तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में
सम्पादकीय लिखा |
7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने
1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के
बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की
शपथ नही ली, इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की
उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया |
8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने
अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को
‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर
सिद्ध कर दिया |
9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके
लिखे ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर
ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध
लगाया था |
10. ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा
गया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था
जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में
बिकी थी | भारतीय क्रांतिकारियों के लिए
यह पवित्र गीता थी |पुलिस छापों में देशभक्तों
के घरों में यही पुस्तक मिलती थी |
11. वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो
समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत
लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे
और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे |
12. सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका
मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला,
मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण
उनको न्याय नही मिला और बंदि बनाकर भारत
लाया गया |
13. वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी
और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी
सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई
थी |
14. सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म
कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले-
चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म
सिद्धांत को मान लिया |
15. वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे
जिन्होंने काला पानी की सजा के समय
10साल से भी अधिक समय तक आजादी के लिए
कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन
निकाला |
16. वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी
थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकर
कोयले से कवितायें लिखी और 6000 पंक्तियाँ
याद रखी |
17. वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी
लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों
तक प्रतिबन्ध लगा रहा |
18. वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने
हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा
कि-‘आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत
भूमिका.पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै
हिन्दुरितीस्मृतः’ अर्थात समुद्र से हिमालय तक
भारत भूमि जिसकी पितृभू है जिसके पूर्वज यहीं
पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत
भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है |
19. वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें
अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा
आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी
हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर
न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद
ससम्मान रिहा कर दिया | देशी-विदेशी दोनों
सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारोंसे डर
लगता था |
20. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका
26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब
भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव
रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद
सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक
मनाया गया था |
21. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त
स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी
2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी
उनके निधनपर शोक प्रस्ताव भी रोका गया
था |
22. वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक
थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने
के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने
राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति
डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और
वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने
अपने कर-कमलों से किया |
23. वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके
शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के
कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर
अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधी
का शिलालेख लगवा दिया | वीर सावरकर ने दस
साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू
चलाया था जबकि गाँधी नेकालापानी की उस
जेल में कभी दस मिनट चरखा नही चलाया |
24. महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी-
देशभक्त, उच्च कोटि के साहित्य के रचनाकार,
हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के मंत्रदाता, हिंदुत्व के
सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे
भव्य-दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे,
जिनसे अंग्रेजी सत्ता भयभीत थी, आजादी के
बाद नेहरु की कांग्रेस सरकार भयभीत थी |
25. वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे
जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से
रोका गया, पर आश्चर्य की बात यह है कि इन
सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज
वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों का सूर्य
उदय हो रहा है |
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वीर सावरकर को शीघ्रातिशीघ्र भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए। स्मरणीयर:
==>>नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जेल में जवानी न सड़ाते हुए भारत से बाहर जाकर सेना का गठन करने का सुझाव सावरकर जी द्वारा दिया गया था। जय हिन्द सुभास बाबू की सेना बनाने में और हिन्दुओ को सैनिक बनाने में बहुत योगदान था सावरकर जी का।
==>>विश्व का सबसे बड़ा संघ आरएसएस भी सावरकर जी के शिष्यों और प्रेणना से बना था हिन्दू महासभा के 6 बार अध्यक्ष रहे थे सावरकर जी- रा. स्व. संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव हेडगेवार को भी सावरकर जी का आशीर्वाद प्राप्त था।
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आइये और जाने विनायक सावरकर के बारे में-
१-वाकई खलनायक थे सावरकर जी-
यह धरा मेरी यह गगन मेरा, इसके वास्ते शरीर का कण-कण मेरा - इन पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले क्रांतिकारियों के आराध्य देव स्वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे । वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू-राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था ।
क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता वीर सावरकर का जन्म 28 मई, सन 1883 को नासिक जिले के भगूर ग्राम में हुआ था | इनके पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही धार्मिक और हिंदुत्व विचारों के थे जिसका विनायक दामोदर सावरकर के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा | मात्र नौ वर्ष की उम्र में हैजे से माता और 1899 में प्लेग से पिता का देहांत होने के कारन इनका प्रारंभिक जीवन कठिनाई में बीता |
वीर सावरकर एक नज़र में - पहल करने वालों में ''प्रथम'' थे सावरकर
अप्रितम क्रांतिकारी, दृढ राजनेता, समर्पित समाज सुधारक, दार्शनिक, द्रष्टा, महान कवि और महान इतिहासकार आदि अनेकोनेक गुणों के धनी वीर सावरकर हमेशा नये कामों में पहल करते थे । उनके इस गुण ने उन्हें महानतम लोगों की श्रेणी में उच्च पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। वीर सावरकर द्वारा किये गए कुछ प्रमुख कार्य जो किसी भी भारतीय द्वारा प्रथम बार किए गए -
- वे प्रथम नागरिक थे जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरूद्ध क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया ।
- वे पहले भारतीय थे जिसने सन् 1906 में 'स्वदेशी' का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी ।
- सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण लन्दन में बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी ।
- वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की ।
- वे पहले भारतीय थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का 'स्वाधीनता संग्राम' बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास 1908 में लिखा ।
- वे पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे जिनकी किताब को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश और ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया ।
- वे दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे, जिनका मामला हेग के अंतराष्ट्रीय न्यायालय में चला था ।
- वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे, जिसने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था ।
- सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था ।
- सावरकर ही वे पहले कवि थे, जिसने कलम-कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कवितायें लिखीं । कहा जाता है उन्होंने अपनी रची दस हजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप वर्षों स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुच गई ।
सन् 1947 में विभाजन के बाद आज भारत का जो मानचित्र है, उसके लिए भी हम सावरकर के ऋणी हैं । जबकांग्रेस ने मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन' और बेहिसाब हिंसा से घबराकर देश का विभाजन स्वीकार कर लिया, तो पहली ब्रिटिश योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था - क्योंकि उन प्रांतोंमें मुस्लिम बहुमत था। तब सावरकर ने अभियान चलाया कि इन प्रांतो के भारत से लगने वाले हिंदू बहुल इलाकोंको भारत में रहना चाहिए । लार्ड मांउटबेटन को इसका औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल कोविभाजित किया गया । आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं तो इसका श्रेय वीर सावरकर को ही जाता है |
The Indian War of Independence - 1857
वीर सावरकर ने इस पुस्तक में सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था जिसके कारण इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए सावरकर जी को अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ा । वीर सावरकर से पहले सभी इतिहासकारों ने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक "सिपाही विद्रोह" या अधिकतम "भारतीय विद्रोह" कहा था । यहाँ तक कि भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे भारत में ब्रिटिष साम्राज्य के ऊपर किया गया एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण ही कहा था ।
सावरकर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 की घटनाओं को भारतीय दृष्टिकोण से देखा। सावरकर जी ने इस पूरी घटना को उस समय उपलब्ध साक्ष्यों व पाठ सहित पुनरव्याख्यित करने का निश्चय किया और कई महीने इण्डिया ऑफिस पुस्तकालय में इस विषय पर अध्ययन में बिताये । इस पुस्तक को सावरकर जी ने मूलतः मराठी में 1908 में पूरा किया परन्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी । इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे । इंडिया हाउस में रह रहकर छः छात्रों ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया और बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से 1909 में हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं । फिर इसका द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया और चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया । फिर इस पुस्तक का अनुवाद उर्दु, हिंदी, पंजाबी व तमिल में भी किया गया । इसके बाद एक संस्करण गुप्त रूप से भारत में भी द्वितीय विश्व यु्द्ध के समाप्त होने के बाद मुद्रित हुआ । इसकी मूल पांडु-लिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पैरिस में सुरक्षित रखी थी । यह प्रति अभिनव भारत के डॉ.क्यूतिन्हो को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पैरिसम संकट आने के दौरान सौंपी गई । डॉ.क्युतिन्हो ने इसे किसी पवित्र धार्मिक ग्रंथ की भांति ४० वर्षों तक सुरक्षित रखा । भारतीय स्वतंत्रता उपरांत उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉ.मूंजे को दे दिया, जिन्होंने इसे सावरकर को लौटा दिया। इस पुस्तक पर लगा निषेध अन्ततः मई, 1946 में बंबई सरकार द्वारा हटा लिया गया ।
सैल्यूलर जेल (Cellular Jail)
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए 'नासिक षडयंत्र काण्ड' के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। यहाँ उन्हें दूसरी मंजिल की कोठी नंबर २३४ मैं रखा गया और उनके कपड़ो पर भयानक कैदी लिखा गया । कोठरी मैं सोने और खड़े होने पर दीवार छू जाती थी | उनके के अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था । साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल भी निकालना होता था । इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था । रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं । इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। इतना कष्ट सहने के बावजूद भी वह रात को दीवार पर कविता लिखते, उसे याद करते और मिटा देते । सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
सबसे आश्चर्य की बात ये है कि आजादी के बाद भी जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस ने उनसे न्याय नहीं किया । देश का हिन्दू कहीं उन्हें अपना नेता न मान बैठे इसलिए उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप लगा कर लाल किले मैं बंद कर दिया गया। बाद मे. न्यायालय ने उन्हें ससम्मान रिहा कर दिया। पूर्वाग्रह से ग्रसित कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें इतिहास मैं यथोचित स्थान नहीं दिया। स्वाधीनता संग्राम में केवल गाँधी और गांधीवादी नेताओं की भूमिका का बढा-चढ़ाकर उल्लेख किया गया ।
वीर सावरकर की मृत्यु के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें नहीं छोडा । सन 2003 मैं वीर सावरकर का चित्र संसद के केंद्रीय कक्ष मैं लगाने पर कांग्रेस ने विवाद खडा कर दिया था। 2007 मैं कांग्रेसी नेता मणि शंकर अय्यर ने अंडमान के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर के नाम का शिलालेख हटाकर महात्मा गाँधी के नाम का पत्थर लगा दिया । जिन कांग्रेसी नेताओ ने राष्ट्र को झूठे आश्वासन दिए, देश का विभाजन स्वीकार किया, जिन्होंने शेख से मिलकर कश्मीर का सौदा किया, वो भले ही आज पूजे जाये पर क्या वीर सावरकर को याद रखना इस राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है ?
क्रमबद्ध प्रमुख घटनाएँ

- पढाई के दौरान के विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके "मित्र मेलों " का आयोजन करना शुरू कर नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जगाना प्रारंभ कर दिया था ।
- 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की ।
- 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई ।
- फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देकर युवाओ को क्रांति के लिए प्रेरित करते थे ।
- बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली ।
- इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के
युगान्तर पत्र में भी छपे ।
- 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई । इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1847 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया ।
- 1908 में इनकी पुस्तक ' The Indian war of Independence - 1857" तैयार हो गयी |
- मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एक्ट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली ।
- लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाऊस की देखरेख करते थे ।
- 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था ।
- 13 मई, 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया |
- 8 जुलाई, 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले ।
- 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी ।
- 31 जनवरी, 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया ।
- नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया ।
- 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
- 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी । जेल में उन्होंने
हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा ।
- मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ. हेडगेवार से हुई ।
- फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से रत्नागिरी (महाराष्ट्र) में
पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था ।
- 25 फरवरी, 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये ।
- 15 अप्रैल, 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया ।
- 13 दिसम्बर, 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी ।
- 22 जून, 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई ।
- 9 अक्तूबर, 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया । सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था ।
- 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे ।
- 19 अप्रैल, 1945 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया ।
- 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया ।
- 15 अगस्त, 1945 को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं ।
- 5 फरवरी, 1948 को गान्धी-वध के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया ।
- 4 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया ।
- मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया ।
- 10 नवम्बर, 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे ।
- 8 अक्तूबर, 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की मानद उपाधि से अलंकृत किया ।
- सितम्बर, 1966 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा ।
- 1 फरवरी, 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया ।
- 26 फरवरी, 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया ।
सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी थी जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
"मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की है |"
निसंदेह अंग्रेजो की सरकार के लिए वीर सावरकर के क्रांतिकारी विचार एक बहुत बड़ी समस्या से थे, और सावरकर जी अंग्रेजी सरकार के लिए हमेशा ही एक "खलनायक" थे | शायद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत रॉय जैसे खलनायक, या फिर उनसे भी बड़े महाखलनायक थे |
लेकिन आज न तो अंग्रेजो की सरकार है और न ही हम अँगरेज़ है | वो अंग्रेजी सरकार के लिए क्या थे, आज ये प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है | आज हम स्वतंत्र है, लेकिन फिर भी यदि कोई व्यक्ति या दल वीर सावरकर जी को खलनायक, गद्दार या कुछ ऐसा ही कहता है, तब ऐसे व्यक्तियों या दल पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है | इतना ही नहीं, इनकी सोच से देश और देशवासियों के प्रति चल रहे किसी गूढ़ षड़यंत्र की बू आती है |
उपरोक्त जानकारी के बाद अब आपको निर्णय लेना है कि क्या वीर सावरकर को खलनायक या गद्दार कहने वाले किसी भी व्यक्ति अथवा दल की सोच भारतीय हो सकती है ? भारत को कुछ लोगो अथवा परिवार का गुलाम मानने वाले
  लोगो ने सावरकर जी को कुछ अपशब्द कहें है, एक ऐसे व्यक्ति को जिसने अपना पूरा जीवन भारतीय संस्कृति की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया | क्या इन लोगो की सोच किसी भी प्रकार से भारतीय हो सकती हो ? क्या ये लोग आपके और मेरे भारत के मित्र हो सकते है ? क्या ये भारत माता के सेवक है या आज भी अंग्रेजो के गुलाम ? अब इन लोगो के साथ आपको कैसा व्यहार करना है, इसका निर्णय आपको स्वं ही लेना होगा |

२- महामना सावरकर और महात्मा गांधी-
क्या आप जानते हैं कि वीर सावरकर और गाँधी ने अपने जीवन के कितने कितने दिन जेल में गुजारे ? सावरकर जी तथा गाँधी दोनों को ही भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में कारावास भुगतना पडा, पर ज़रा तुलना करके देखें
वीर सावरकर जी को लन्दन में 13 मार्च, 1909 को बंदी बनाया गया उनको 50 वर्ष का सश्रम कारावास का दण्ड दिया गया, 1911 से 1921 तक उन्हें अण्डमान की काल कोठरी में बंद रखा गया l
6 जनवरी 1924 को उन्हें कारावास से मुक्त करके रत्नागिरी जिले में आबद्ध रखा गया, 10 मई 1937 को यह प्रतिबन्ध समाप्त हुआ l
1941 में भागलपुर में हिन्दू महासभा के अधिवेशन के सम्बन्ध में 8 दिन,
1948 में गाँधी वध के अभियोग में अभियुक्त होने के कारण 13 महीने, फिर 1950 में नेहरु लियाकत समझौते के समय 100 दिन ... वीर सावरकर जी को कारावास सहना पडा l
30 जनवरी 1948 को गाँधी का वध किया गया हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे की गोलियों द्वारा, नेहरु की द्वेष बुद्धू के फलस्वरूप इस घटना से सावरकर जी का कोई सम्बन्ध न होने पर भी उन्हें गाँधी वध का अभियुक्त बनाया गया किन्तु न्यायलय ने उन्हें निर्दोष माना और मुक्त कर दिया गया l
17 वर्षों के बाद 21 दिन तक निराहार रह कर आयु के 83वें वर्ष, 26 फ़रवरी 1966 को सावरकर जी ने आत्मार्पण किया, शास्त्रों में अंधश्रद्धा न रखने वाले सावरकर जी निराहार रह कर परलोक सिधारे और जीवन भर अनशन तथा सत्याग्रह करने वाले गाँधी ... पिस्तोल की गोलियों से मारे गए l
कुल मिलाकर सावरकर जी 5585 दिन प्रत्यक्ष कारागार में, 4865 दिन नजरबंदी में रहे... दोनों को मिलाकर 10410 दिन (28 वर्ष 200 दिन),
आत्मार्पण के दिन तक उन पर गुप्तचरों का पहरा रहता था l
गाँधी को कुल 7 वर्ष और 10 महीनों का कारावास का दण्ड दिया गया, जिसमे 905 दिन का कारावास उन्हें भुगतना पड़ा और 1365 दिनों के लिए स्थानबद्ध किया गया, अर्थात उन्हें कुल 2270 दिन (6 वर्ष 80 दिन ) कारावास में काटने पड़े, इनमे से अधिकतर समय वे प्रथम श्रेणी के विशिष्ठ बंदी रहे l एक अंग्रेज जेलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है की एक कैदी के लिए पहली बार सरकार से ऐसे आदेश प्राप्त होते थे की कारागार की सलाखें बंद न की जाएँ.. कहीं गाँधी जी को बुरा न लग जाये l
तो दूसरी और सावरकर को सजा मिलती थी सारा दिन कोल्हू चला कर 30 लीटर तेल निकालने का... निरन्तर ... लगातार ... अथक ... यदि कम रह गया तो फिर कोड़ों की सजा मिलती थी l
दोनों अलग ध्रुव थे, गांधी आदर्शवादी थे तो वीर सावरकर यथार्थवादी।
सावरकर ने जितना लिखा है उतना तो महात्मा ने पढ़ा भी नहीं होगा..इसमे संदेह नहीं कि सावरकर कि अपेक्षा गाँधी की स्वीकार्यता बहुत अधिक थी। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है कि गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन सन 1920 के आसपास हुआ था जबकि सावरकर ने सन 1937 में हिंदू महासभा में का नेतृत्व लिया था (सन 1937 तक वीर सावरकर पर राजनीति में प्रवेश की पाबन्दी थी)। जब गांधी भारतीय राजनीति में आये तो शिखर पर एक शुन्य था, तिलक और गोखले जैसे लोग अपने अंतिम दिनों में थे। लेकिन जब वीर सावरकर आये तब गाँधी एक बड़े नेता बन चुके थे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग महात्मा गाँधी को चमत्कारी पुरुष मानते थे और उनके नाम से कई किंवदंतियाँ प्रचलित थी, जैसे कि वे एकसाथ जेल में भी होते हैं और मुंबई में कांग्रेस की सभा में भी उपस्थित रहते हैं (पता नहीं इस तरह की कहानियों को प्रचलित करने में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कितना योगदान है)।
यदि सावरकर भी सन 1920 के आसपास ही राजनीति में आये होते तो जनमानस किसके साथ जाता, यह कोई नहीं जानता। वीर सावरकर उस दौर में एकमात्र राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गाँधी से सीधे लोहा लिया था। कांग्रेस के अंदर और बाहर भी, ऐसे लोगों की लंबी सूचि है जो गाँधी से सहमत नहीं थे लेकिन कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले सका। लेकिन सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति दर्ज कराई। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का पूरी शक्ति से विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी। इससे कौन इनकार करेगा कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नाम के विषवृक्ष कि नीव पड़ी? इसी तरह सन 1946 के अंतरिम चुनावों के समय भी उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी दी कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है ‘भारत का विभाजन’, वीर सावरकर सही साबित हुए। वीर सावरकर की सोच पूरी तरह वैज्ञानिक थी लेकिन तब भारत उनके वैज्ञानिक सोच के लिए तैयार नहीं था।
यह सच है कि सावरकर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए। लेकिन सफलता ही एकमात्र पैमाना हो तो रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कई महान विभूतियों को इतिहास से निकाल देना चाहिए? स्वतंत्रता के बाद के दौर में भी देखें, तो राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे लोगों का कोई महत्व नहीं? वैसे सफल कौन हुआ? जिसके लाश पर विभाजन होना था उसके आँखों के सामने ही देश बट गया। सफलता ही पूज्य है तो जिन्ना को ही क्यों न पूजें? उन्हें तो बस पाकिस्तान चाहिए था और ले कर दिखा दिया।
भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी कहते थे कि व्यक्ति की महानता उसके जीवनकाल में प्राप्त सफलताओं से अथवा प्रसिद्धि से तय नहीं होती वरन भवीष्य पर उसके विचारों के प्रभाव से तय होती है। वीर सावरकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और उनका प्रभाव कहाँ तक होगा, यह आनेवाला समय बताएगा। इतिहास सावरकर से न्याय करेगा अथवा नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिखेगा।
अब एक प्रसंग :
गाँधी ने एक प्रसंग में हुतात्मा सावरकर से कहा : "यह निश्चय है की हमारे मतभेद हैं मगर मेरे प्रयोगों के विषय में आप को आपति नहीं होगी..
सावरकर: " आप राष्ट्र के मूल्य पर प्रयोग कर रहें हैं"
गाँधी के प्रयोग का प्रतिफल भारत का खंडन और सर्वदा का कैंसर पाकिस्तान का निर्माण..माताओं बहनों का मानभंग...लाखो मनुष्यों की बलि,
काश इस राष्ट्र ने महात्मा के चरखे के बजाय सावरकर के शस्त्र को अपनाया होता, तो आज स्थिति कुछ और ही होती , अब भी यदि हम चेत सकें तो राष्ट्र को बचा सकते हैं।

३-         द अच्युतानंद मिश्र
संपादक, लोकमत समाचार (नागपुर)
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श्री विनायक दामोदर सावरकर अपनी मृत्यु के सैंतीस वर्ष बाद भी विवादों के घेरे में हैं। उनको निशाना बनाने की कोशिश कई राजनीतिक दलों की इतिहास के प्रति अज्ञानता और साजिश का मिलाजुला नमूना है। संसद के प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने पिछले वर्ष पांच दिसम्बर को यह निर्णय किया था कि सावरकर की 37वीं पुण्यतिथि पर 26 फरवरी को उनका एक चित्र संसद के केन्द्रीय कक्ष में लगाया जाए। पहल लोकसभा अध्यक्ष श्री मनोहर जोशी ने की थी और समिति में कांग्रेस तथा माक्र्सवादी पार्टी के सदस्य भी मौजूद थे। चित्र लगाने का फैसला एक राय से लिया गया था और उस पर कांग्रेस के शिवराज पाटिल, प्रणव मुखर्जी, माक्र्सवादी नेता सोमनाथ चटर्जी जैसे लोगों की सहमति थी। चित्र के अनावरण के लिए राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और चित्र के निर्माण के लिए चंद्रकलाकुमार कदम के नाम घोषित हो गए। आयोजन के एक दिन पूर्व अचानक कांग्रेस, माक्र्सवादी, समाजवादी तथा अन्य नेताओं ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर कहा कि चित्र के अनावरण कार्यक्रम में वे शामिल न हों। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने पत्र में लिखा था, "मैं और अन्य विपक्षी सदस्य उक्त समारोह में उपस्थित होने में असमर्थ हैं। आपको भी वहां जाने के बारे में फिर से विचार करना चाहिए।' माक्र्सवादी नेताओं ने भी राष्ट्रपति को पत्र लिखा और जब उनसे पूछा गया कि पांच दिसम्बर को जब आप चित्र लगाने के लिए सहमत थे तो एक दिन पहले असहमत क्यों हो गए, तो उन्होंने अपनी सहमति देने के लिए माफी मांग ली। राष्ट्रपति ने इन नेताओं को उपकृत नहीं किया। उन्होंने चित्र के साथ-साथ एक पुस्तक "स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर' का लोकार्पण भी किया। उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री के साथ पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और राज्यसभा की उपसभापति नजमा हेपतुल्ला भी मौजूद थीं। अनावरण समारोह के बाद नारे भी लगे। लोकसभा में तीखी नोक-झोंक भी हुई और सावरकर को लेकर देशव्यापी बहस का एक नया सिलसिला भी शुरू हो गया जो थमने का नाम नहीं ले रहा है।
ब्रिटिश संसद ने 17 साल पहले किया था सावरकर का सम्मान
द प्रियदर्शी दत्त
7 जून, 1885 को ब्रिटिश संसद ने एक विशेष कारण से अपनी कार्यवाही स्थगित की। सांसदों ने एक ऐसे व्यक्ति को श्रद्धाञ्जलि दी जिसे कभी ब्रिटिश साम्राज्य ने अपना कट्टर दुश्मन कहा था, वह व्यक्ति थे स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966)। वे सभी सांसद वैस्टमिन्स्टर सौंध में बने सभागार में एकत्रित हुए जहां श्री प्रेम वैद्य द्वारा बनाया गया वृत्तचित्र दिखाया जा रहा था। (1983 में इस वृत्त चित्र के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी प्रदान किया गया था)। इसी अवसर पर सावरकर के जीवन पर लेखन के विशेषज्ञ डा. हरिन्द्र श्रीवास्तव द्वारा लिखित पुस्तक "फाइव स्टोर्मी ईयर्स-सावरकर इन लंदन' का भी लोकार्पण किया गया था।
अगले दिन 18 जून को ग्रीस के राजदूत समेत 70-80 सांसद लंदन में 1906-11 के बीच सावरकर की क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्रबिन्दु रहे "इंडिया हाउस' में इकट्टे हुए। इस कार्यक्रम में क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सांसद, 97 वर्षीय लार्ड फेन्नर ब्राक्वे ने अपने अनूठे अंदाज में कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सावरकर पर लगाए गए सारे आरोप पूर्णत: निराधार और धूत्र्ततापूर्ण थे। उन्होंने कहा कि सावरकर जैसे देशभक्त का होना किसी भी देश के लिए गौरव की बात है।
यह तो विडम्बना ही है कि देशभक्ति के ज्वालामुखी वीर सावरकर के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में भारतीय संसद को वैस्टमिन्स्टर से 17 साल पीछे रहना पड़ा। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण था 26 फरवरी को विपक्ष द्वारा सामूहिक रूप से उस समारोह का बहिष्कार करना। उस व्यक्ति के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने लिए इसके अतिरिक्त वे कर भी क्या सकते थे, जिसने द्वितीय वि·श्व युद्ध के समय मुस्लिमबहुल भारतीय सेना को अपने तूफानी प्रचार से 75 प्रतिशत हिन्दूबहुल बना दिया और मुस्लिम लीग के लिए परेशानियां खड़ी कर दीं। यदि ऐसा न किया जाता तो विभाजन के बाद पंथनिरपेक्ष भारत के अधिकांश भागों को दारुल-इस्लाम में तब्दील कर देने का खतरा बहुत बढ़ जाता।
एक और तथ्यहीन आरोप जो सावरकर पर अक्सर लगाया जाता है, वह है सावरकर पर गांधी जी की हत्या का आरोप। इससे क्या साबित होता है? गांधी हत्या मुकदमे की सात महीने तक चली कार्यवाही में जिन सावरकर को 84 बार की सुनवाइयों के बाद बाइज्जत बरी कर दिया गया था, उन्हें अभी भी गांधी जी का हत्यारा कहा जाता है? क्या यह न्यायालय की अवमानना नहीं है?
दिगम्बर बगड़े के बयान के सिवाय सावरकर को दोषी करार देने वाला कोई सबूत नहीं था। दूसरी ओर नाथूराम गोडसे, जिसने गांधी जी पर गोली चलाई थी, ने यह कहा था कि इसमें सावरकर का कोई हाथ नहीं था। यदि कांग्रेस सरकार ईमानदार थी तो उसने गोडसे के बयान वाली पुस्तक "मे इट प्लीज योर आनर' को प्रतिबंधित क्यों कर दिया था? गोपाल गोडसे के तीस वर्षों के प्रयत्नों और उच्चतम न्यायालय के एक आदेश के बाद ही इस पुस्तक पर लगे प्रतिबंध को रद्द कराया जा सका था। उसके बाद से इस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।द
(पायनियर: 12 मार्च, 2003 से साभार)
स्वतंत्रता संग्राम में श्री सावरकर की भूमिका को लेकर चलाए जा रहे इस अभियान के बारे में सबसे पहला सवाल तो यह है कि अगर राजनीतिक दलों और नेताओं के इतिहास ज्ञान के मुताबिक सावरकर कट्टर हिन्दुत्ववादी और सांप्रदायिक थे और संसद के केन्द्रीय कक्ष में उनकी तस्वीर लगाकर गांधीजी का अपमान किया गया है, तो यह चेतना पांच दिसम्बर को प्रकट क्यों नहीं हुई और 25 फरवरी को राष्ट्रपति को पत्र लिखने के पूर्व क्यों सार्वजनिक नहीं की गई? इसका साफ-साफ मतलब है कि चित्र के अनावरण समारोह के बहिष्कार का निर्णय बाद में एक सोची-समझी रणनीति के तहत लिया गया और उसमें राष्ट्रपति को भी लपेटने की कोशिश की गई। अब मीडिया के सहारे सावरकर के व्यक्तित्व, विचार तथा राजनीति को लेकर जबरदस्त बहस शुरू हो गई है। वामपंथी इतिहाकारों को प्रमाण मानकर सावरकर पर तीन आरोप बार-बार लगाए गए हैं। पहला यह कि महात्मा गांधी की हत्या में उनका हाथ था। दूसरा, उन्होंने अपने को रिहा कराने के लिए अंग्रेज सरकार से लिखित माफी मांगी थी और तीसरा उनकी विचारधारा कट्टर हिन्दुत्ववादी और सांप्रदायिक थी। तीनों आरोपों के उत्तर प्रमाण सहित दिए गए हैं और इस दौरान भी उन पर विस्तार से लिखा गया है। अगर महात्मा गांधी की हत्या की जांच करने वाले कपूर आयोग ने सावरकर को हत्या की साजिश में शामिल नहीं माना है, तो यह लिखना कहां तक न्यायोचित है कि सावरकर की राजनीतिक विचारधारा महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार है? क्या इसलिए कि अगर सावरकर को धकेलकर हाशिए पर नहीं किया गया तो ऐसे अनेक नेता, जिनकी तस्वीरें केन्द्रीय कक्ष में लटक रही हैं, बौने हो जाएंगे? ऐसी कोशिशें पहले भी हुई हैं और आज भी जारी हैं। यह किसको नहीं मालूम कि अगर लोकसभा अध्यक्ष के रूप में रवि राय ने पूरी ताकत से पहल न की होती तो डा. राम मनोहर लोहिया की तस्वीर वहां न होती। इन नेताओं को शायद यह पता न हो कि गांधी हत्याकांड में सावरकर को फंसाने का विरोध डा. बाबासाहब अंबेडकर ने खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू से किया था। अपनी रिहाई के लिए सरकार को चिट्ठी लिखकर सात माफीनामों का उल्लेख खुद सावरकर ने अपनी आत्मकथा "माझी जन्मठेप' में किया है। सावरकर ने इन माफीनामों को अपनी रणनीति का हिस्सा माना है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि उन्हें रिहाई नहीं मिली। उस समय के गृहसचिव सर क्रैडिक ने खुद अंदमान में सावरकर से भेंट करने के बाद अपनी टिप्पणी में लिखा कि उनका कोई हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है, वे उसी तरह जलते हुए अंगार हैं जैसा अंदमान भेजे जाने से पहले थे। उनका माफीनामा केवल धोखा है। इस तथ्य को वामपंथी इतिहासकारों ने क्यों सामने नहीं रखा? इसका उत्तर उन्हें देना पड़ेगा। माक्र्सवादी कम्युनिस्टों का सावरकर पर माफी मांगने का आरोप लगाना हास्यास्पद है। उनका तो इतिहास ही देशद्रोह और माफीनामों से भरा पड़ा है। यह जानना जरूरी है कि 1942 के स्वतंत्रता संघर्ष में माफी मांगकर रिहा हो जाना, मुखबिरी करके स्वतंत्रता-सेनानियों को गिरफ्तार कराना और अंग्रेज सरकार का साथ देना कम्युनिस्टों के इतिहास की सत्य कथा है। छूटने वाले कामरेडों में एस.ए.डांगे, बी.टी. रणदिवे, मिराजकर, पाटकर, राहुल सांकृत्यायन, सज्जाद जहीर, ए.के. घोष, सुनील मुखर्जी, हर्षदेव मालवीय, एस.वी घाटे जैसे बड़े नेता शामिल हैं। कुछ वर्ष पहले जब पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने स्वतंत्रता संग्राम में कम्युनिस्टों के योगदान का उल्लेख किया था, तो उनको फटकारते हुए मधु लिमये ने इनके कारनामों का पूरा चिट्ठा और सूची अपने लेख में दी थी। इसलिए सावरकर पर कम्युनिस्टों के आरोपों को उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उन्होंने सुभाषचंद्र बोस को "तोजो का कुत्ता' कहा था और अब उन्हें महान स्वतंत्रता सेनानी मानने लगे हैं। सावरकर को लेकर अपनी क्षमा याचना के लिए वे कितना समय लेंगे, इसका निर्धारण तो वे ही कर सकते हैं।

कांग्रेस पार्टी सावरकर को किस नजर से देखती है और सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी का इतिहास क्यों नहीं पढ़ा, इस पर मुम्बई के एक मराठी समाचार-पत्र ने बेबाक टिप्पणी की है। उसमें पूरे विवरण के साथ लिखा गया है कि सावरकर जन्मशताब्दी पर 20 मई, 1980 को किस तरह श्रीमती इंदिरा गांधी ने निजी कोष से ग्यारह हजार रुपए का चेक भेजा था और पत्र में उन्हें "भारत के महान सपूत' लिखा था। उन्होंने सावरकर पर डाक टिकट भी जारी किया था। उस समय की कांग्रेस शासित कई राज्य सरकारों-कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गोवा और अरुणाचल ने सावरकर स्मारक के लिए मुक्तहस्त से अनुदान दिया था। मुम्बई में "दादर सी-फेस' पर जो स्मारक बना है, उसका उद्घाटन 1989 में डा. शंकर दयाल शर्मा ने किया था। शरद पवार, जो उस समय महाराष्ट्र में कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे, ने एक अहम् भूमिका निभाई थी। मुख्यमंत्री के रूप में शंकरराव चव्हाण या बाबासाहेब भोंसले ने भी इस स्मारक को भेंट दी थी। वर्तमान मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सावरकर को समाज सुधारक और विद्वान तो मान लिया है, लेकिन दूसरे सवालों को उन्होंने टाल दिया। राष्ट्रभक्तों और इतिहास पुरुषों के योगदान पर केवल इसलिए कालिख नहीं पोती जा सकती, क्योंकि आज के लोगों से उनके वैचारिक मतभेद हैं। दुर्भाग्य से यह भारत में बहुत बार हुआ है। जो इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं, वे जानते हैं कि सावरकर एक प्रखर क्रांतिकारी ही नहीं, एक श्रेष्ठ कवि, लेखक और समाज सुधारक रहे हैं। विनायक सावरकर के त्याग तथा बलिदान का भी लंबा इतिहास है। स्वातंत्र्यवीर होने के साथ वे कलम और क्रांति के शलाका पुरुष भी थे। उनकी गिरफ्तारी का वारंट लंदन भेजा गया था और 1908 में गिरफ्तारी के बाद से अंदमान तक का इतिहास शानदार और गौरवपूर्ण है। लंदन में जब वे भारतीय क्रांतिकारियों को पिस्तौल भेजने का काम कर रहे थे तो मिर्जा अब्बास और सिकंदर हयात उनके सबसे खास सहयोगी थे। नासिक षड्यंत्र मुकदमा, जिसमें जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन मारा गया था, में उन्हें काले पानी की सजा हुई थी। 25 वर्ष की उम्र में उन्हें 50 साल की सजा दी गई थी। सावरकर अपने हर रूप में महान हैं। जाति और धर्म के बंधनों का विरोध जिस रूप में उन्होंने किया था, विरले समाज सुधारकों ने किया है। उनकी तस्वीर लगने से संसद के केन्द्रीय कक्ष का गौरव कुछ अधिक बढ़ा है। (लोकमत समाचार: 9 मार्च, 2003 से साभार)
यह लेख आयुष हिन्दू इस ब्लॉग से लेकर प्रकाशित किया है !
लेखक संपर्क :- आयुष शर्मा मो.न. 9169808075